
- एसएमएस मेडिकल कॉलेज की प्रोफेसर न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. भावना शर्मा ने कहा- लक्षणों को हल्के में लेना पड़ सकता है भारी
- रांची के बीएनआर चाणक्य में आयोजित झारखंड न्यूरोसाइंस सोसायटी के पहले वार्षिक सम्मेलन में ऑटोइम्यून एपिलेप्सी पर दिया व्याख्यान
Samachar Post डेस्क, रांची : दौरे पड़ना (सीजर) या मिर्गी को आमतौर पर न्यूरोलॉजिकल बीमारी के तौर पर देखा जाता है, लेकिन कई बार इसका कारण शरीर की इम्यून प्रणाली होती है, जो गलती से मस्तिष्क पर हमला कर बैठती है। ऐसी स्थिति को “ऑटोइम्यून एपिलेप्सी” कहा जाता है, जो दुर्लभ लेकिन खतरनाक स्थिति है। समय पर पहचान और इलाज न होने पर यह मिर्गी को गंभीर और जटिल बना सकती है। यह आमतौर पर तब होता है जब शरीर के अपने ही प्रोटीन हमारे ब्रेन के खिलाफ काम करने लग जाते हैं।
इस बीमारी में शरीर की रक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) ऐसे एंटीबॉडीज बना लेती है जो मस्तिष्क की कोशिकाओं और न्यूरोट्रांसमीटर को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे न्यूरॉन की कार्यप्रणाली बाधित होती है और व्यक्ति को मिर्गी जैसे दौरे पड़ने लगते हैं। उक्त जानकारी जयपुर के एसएमएस मेडिकल कॉलेज की प्रोफेसर न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. भावना शर्मा ने रांची के होटल बीएनआर चाणक्य में आयोजित झारखंड न्यूरोसाइंस सोसायटी के पहले वार्षिक बैठक के दौरान दी। उन्होंने बताया कि मिर्गी को लेकर लोगों में अब भी भ्रांतियां है। इस वजह लोग पहले ओझा, तांत्रिक के पास जाते है और फिर स्थिति बिगड़ने के बाद डॉक्टर के पास पहुंचते हैं। इससे उनकी स्थिति ज्यादा बिगड़ जाती है। इसलिए जरूरी है कि उनका समय पर इलाज हो।
कैसे होती है यह बीमारी?
न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. भावना शर्मा बताती हैं कि ऑटोइम्यून एपिलेप्सी अक्सर अचानक होती है। यह किसी संक्रमण, वैक्सीनेशन, कैंसर (विशेषकर लिम्फोमा या ओवेरियन टेरटोमा) या अन्य ऑटोइम्यून बीमारियों के बाद विकसित हो सकती है। इस बीमारी में मस्तिष्क की सतह पर इम्यून सिस्टम हमला कर देता है, जिससे सूजन और तंत्रिका संचार में गड़बड़ी होती है।
यह भी पढ़ें : झारखंड: रिम्स के एक्सपर्ट के मार्गदर्शन में पांच जिलों में 10 बेड आईसीयू सेवा शुरू
पहचान में देर क्यों होती है?
इसका सबसे बड़ा खतरा यह है कि ऑटोइम्यून एपिलेप्सी को पहचानना आसान नहीं होता। कई मामलों में एमआरआई, सीटी-स्कैन या ईईजी रिपोर्ट सामान्य आती हैं और रोगी को सामान्य एपिलेप्सी समझकर इलाज किया जाता है। डॉ. भावना शर्मा बताती हैं कि जब पारंपरिक मिर्गी की दवाएं (एंटी-एपीलेप्टिक ड्रग्स) असर नहीं करतीं, और रोगी को लगातार दौरे पड़ते हैं, तब ऑटोइम्यून कारण की जांच करनी चाहिए। इसके लिए स्पाइनल फ्लूइड एनालिसिस, ऑटोइम्यून एंटीबॉडी टेस्ट और पेट स्कैन जैसे विशेष जांचों की जरूरत पड़ती है।
लक्षण क्या हैं?
- बार-बार बिना कारण दौरे पड़ना।
- व्यवहार या व्यक्तित्व में अचानक बदलाव।
- स्मृति और एकाग्रता में गिरावट।
- भ्रम, चिड़चिड़ापन या अवसाद जैसे लक्षण।
- कभी-कभी बुखार या अन्य संक्रमण के लक्षणों के बाद दौरे।
इलाज क्या है?
डॉ. भावना शर्मा बताती हैं कि यदि ऑटोइम्यून एपिलेप्सी की पुष्टि हो जाए, तो इसका इलाज एंटीबॉडी को दबाने या खत्म करने वाले उपचार से किया जाता है। इसमें स्टेरॉयड, इम्यूनोमॉड्यूलेटर (आईवीआईजी), प्लाज्मा फेरासिस, रितुक्सिमैब जैसी दवाएं प्रमुख हैं। इसका इलाज न्यूरोलॉजिस्ट और इम्यूनोलॉजिस्ट की टीम द्वारा मिलकर किया जाता है। साथ में एपिलेप्सी के लक्षणों को नियंत्रित करने के लिए एंटी-एपिलेप्टिक दवाएं भी दी जाती हैं।
यह भी पढ़ें : हॉकी: 3 से 14 जुलाई तक सब जूनियर गर्ल्स नेशनल हॉकी चैंपियनशिप, देश भर से 30 टीमें लेगी हिस्सा
देर होने पर क्या खतरा?
- दौरे लगातार और ज्यादा गंभीर हो सकते हैं।
- स्मृति और मानसिक क्षमताओं में स्थायी नुकसान हो सकता है।
- ब्रेन डैमेज और मानसिक विकृति की आशंका।
- बेहोशी की स्थिति या आईसीयू में भर्ती तक की नौबत।